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Saturday 2 September 2017

अतीत का क़ैदी

क्यो बन कैदी अतीत का, बैठा रे इंसान
जैसे रोये मुसाफिर कोई, लुटने पर सामान
क्या-क्या खो रहा इस चक्कर में
है सब से अनजान
क्यो बन कैदी अतीत का, बैठा रे इंसान

क्या रोना उसकी खातिर
जिसको कर सकते फिर हासिल
चल उठ फिर शुरुआत कर
बांध रस्ते का सामान
क्यो बन कैदी अतीत का, बैठा रे इंसान

कब तक शाख पे बैठेगा तू, बनकर पंछी बेचारा
बना तू अपने रस्ते खुद ही, जैसे किसी नदी की धारा
जान ले सबकुछ है तेरे अंदर
बस पैदा कर तूफान
क्यो बन कैदी अतीत का, बैठा रे इंसान

तुझको क्या मालूम है क्या क्या, मुस्तक़बिल की झोली में
तू तो बस बहता चल, रंगा जुनून की होली में
मत कर फिक्र तू ज़र्रों की,
तुझे छूना है आसमान
क्यो बन क़ैदी अतीत का, बैठा रे इंसान

©arshad ali

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