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Monday 28 August 2017

कंकरीट का जंगल

तनहा भटक रहा हूँ इक कंकरीट के जंगल में
खुद को तपा रहा हूँ इक कंकरीट के जंगल में
तलाश है नज़रो को, मेरे खोये हुए बचपन का
नज़रे फिरा रहा हूँ इक कंकरीट के जंगल में

रोना चाहता हूँ, खुल के हंसना चाहता हूँ
इक कशमकश है ख्यालों में, मैं क्या चाहता हूँ
कोई कैसे मुस्कुराये हबीब के बिछड़ने पर
मुश्त ए गुबार हो रहा हूँ इक कंकरीट के जंगल में

एहबाब मेरे कहते है, तू ग़मगीन है, तुझ मे बात नहीं
पास होता  तो है तू, पर हमारे साथ नहीं
मातम है मन के नशीमन में, कुछ खो रहा हूँ जैसे
खुद से बिछड़ रहा हूँ इक कंकरीट के जंगल में

©arshad ali

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