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Saturday 30 December 2017

मेहनत के आदी...

आज गाँव से उनका गुज़र हुआ 
जो खुद को हुक्मरां कहते है 
किसी मक़सद के तहत होंगे यहाँ 
अमूमन दीदार नहीं होता इनका 
शायद गिनती करनी होगी मोहल्ले में 
कितने हिन्दू, कितने मुस्लिम, कितने बाभन, कितने चमार ?
काफी मेहनत लगी "बाँटने" और "गिनने" में साहब को 
कितना आसान होता अगर इंसानो की गिनती होती
पर इन्हे कौन समझाए ये तो "मेहनत के आदी " है / 

©arshad ali

ये जो तेरी आँखे है...

ये जो तेरी आँखे है,  किसी घटा से कम नहीं
जिस पहलू देखती हैं, दिलो पे तीर बरसते हैं

ये जो तेरी आँखे है, किसी नज़्म से कम नहीं
जिन्हें  पढ़ने  को  तमाम  शायर तरसते है

ये जो तेरी आँखे है, किसी शाम से कम नहीं
जिनकी आमद पर  कितनो के रोज़े खुलते है

ये जो तेरी आँखे है, किसी इत्र से कम नहीं
जिस  राह  गुज़रते  है  ख़ुश्बू  बिखेरते   है 

ये जो तेरी आँखे है, किसी ख़्वाब से कम नहीं
जिसे  देखने  को  तमाम  शहर  सोते  है

ये जो तेरी आँखे है, क्या कहु इनको ?
हर सू यहीं है , सब कुछ यहीं   है 
इनके बिना जाम फ़ीकी, इनके बिना शाम फ़ीकी
इनके बिना दिन फीके, इनके बिना रात फ़ीकी
सर्दी की धूप फ़ीकी, गर्मी  की छाँव फ़ीकी      
इनके बिना मेहफ़िल सूनी, इनके बिना हर बात फ़ीकी  

ये जो तेरी आँखे हैं, क्या कहु इनको....
 
©arshad ali


माँ-बाप

वो "सबकुछ"  करते  रहे, "कुछ" हासिल  करने  को
मै "सबकुछ" पा गया, "माँ-बाप" से  मोहब्बत करके

©arshad ali

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