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Wednesday 23 August 2017

ज़रा सा क़तरा कही आज गर उभरता है

ज़रा सा क़तरा कही आज गर उभरता है
समन्दरों ही के लहज़े में बात करता है

खुली छतो के दिये कब के बुझ गये होते
कोई तो है जो इन हवाओं के पर कतरता है

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है

ज़मी की कैसी विकालत हो फिर नहीं चलती
जब आसमां से कोई फैसला उतरता है

तुम आ गये हो तो फिर चाँदनी सी बाते हों
ज़मी पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है

वसीम बरेलवी  

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